मिट्टी के दिए- लघुकथा (mitti ke diye -short story)
मिट्टी के दीए
लेखिका- सुनीता बिशनोलिया
गोलू उठ, कितना सोएगा। 'मां मैं उठा हुआ ही हूं, आप लोग सामान उठा रहे थे तभी मेरी नींद खुल गई थी। 'अच्छा, सुन तेरे बाबा तो बाजार गए और मैं भी अब जा रही हूं।'
'आज बड़ी जल्दी चले गए बाबा। 'दिवाली है दीए नहीं बेचने क्या? जाना तो पड़ेगा और बाजार में बैठने की जगह भी तो पक्की करनी है।
'क्यों! कहीं भी बैठ जाएंगे।'
'ऐसे कैसे बैठ जाएंगे परमिशन लेनी पड़ती है।
'परमिशन...किसकी परमिशन?
ओहो ! कितने सवाल पूछता है। अब तू खड़ा हो जितने दीयों पर रंग करना बाकी है उन पर रंग कर लेना, खाना खाकर जल्दी से दुकान आ जाना। बेटे मैं चलती हूं।
ठीक है मां, मैं थोड़े से दीए अपने दोस्तों के लिए ले आऊं, वे आज दुकान पर आएंगे।"
'हां... हां ले आना।
हां... हां मां, ले आऊंगा और हर बार की तरह जो नहीं बिकेंगे वे वापस लाकर घर के कोने में रख दूंगा और वे पड़े रहेंगे साल भर।'
'बेटा कोने में क्यों पड़े रहेंगे घर में रखेंगे तुम्हारी तरह। वह भी तुम्हारी तरह मेरे लाडले हैं, बहुत प्यार और मेहनत से #बनाया है इन्हें।
एक दीए के टूटने का दर्द भी मुझे तुम्हारे लगी चोट की तरह तकलीफ देता है बेटा।'
'हां मां, आप और बाबा कितने प्यार से दीए बनाते और संभालते हैं।'
'बहुत बातें करता है तेरी बातों के कारण देर हो गई। कोई ग्राहक न निकल जाए...वैसे ही #बिजली के दीयों ने रोजगार आधा कर दिया। कहती हुई शांति निकल जाती है दीयों से भरी टोकरी लेकर।
लेखिका: सुनीता बिशनोलिया
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